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सावन-मास में शिव-जलाभिषेक का महात्म्य | Sawan ka mahina kyun hai khaas? | Kanwar yatra



हिंदू शास्त्रों के अनुसार बारह महिनों में सावन/श्रावण मास का महात्म्य सुनने योग्य है क्योंकि इसका सीधा संबंध देवाधिदेव महादेव से जुड़ा है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार सावन का महिना शिव भोलेनाथ को अत्यंत प्रिय है अतः संपूर्ण भारत वर्ष में इसे पावन पर्व के रुप में मनाया जाता है। इस पवित्र माह के महात्म्य के श्रवण मात्र से ही हर प्रकार के दुःख-दरिद्र, रोग-दोष दूर होते हैं। इस महिने में किया गया दान-पून्य, भक्ति, पूजा-अर्चना का फल सहस्त्र गुणा अधिक मिलता है। सावन/श्रावण मास की पुर्णिमा भी सामान्यतः श्रावण नक्षत्र में पड़ती है।  इस दिन किए गए व्रत, पूजा-पाठ, सच्चे मन से की गई प्रार्थना से अखंड-सौभाग्य, सौंदर्य एवं रिद्धि-सिद्धि का वरदान प्राप्त होता है।
वज़ोबिआना के इस लेख में सावन का महिना क्यों है खास/Sawan ka mahina kyun hai khas सामान्यतः निम्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है:

1) सावन/श्रावण मास में शिव-जलाभिषेक का महात्म्य/महत्व 
2) पुत्रदा एकादशी
3) श्रावण मास की एकादशी का महात्म्य/महत्व 
4) कांवड़ यात्रा 

सावन के पावन महिने में शिव-जलाभिषेक क्यों किया जाता है, सावन का महिना क्यों है खास इसका महात्म्य/महत्व क्या है आइए जानते हैं:

1) सावन/श्रावण मास में शिव-जलाभिषेक का महात्म्य/महत्व:

वैसे तो पूरा वर्ष/साल शिवभक्त अपनी इच्छा एवं श्रद्धा के अनुसार शिव-जलाभिषेक कभी भी कर सकते हैं लेकिन सावन का महिना क्यों है खास/Sawan ka mahina kyun hai khas, हमारे शास्त्रों, पुराणों और पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन/श्रावण मास में शिव-जलाभिषेक का विशेष महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब देवी सती ने अपना शरीर त्याग दिया था और हिमालय राज के घर जन्म लेकर शिवजी को प्रसन्न करने एवं पति/वर के रूप में दुबारा पाने के लिए सावन के इस पावन/पवित्र माह में घोर तपस्या की थी। देवी सती/पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर उनकी मनोकामना पूर्ण की थी। सावन के इसी पावन माह में शिवजी धरती पर अवतरित होकर अपने ससुराल गए थे और वहां स्वागत में उनका जलाभिषेक किया गया था।  तब से ही शिव-जलाभिषेक का महात्म्य/महत्व माना जाता है। सावन के इस पावन महिने में कुंवारी कन्याएं योग्य, मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए और वैवाहिक स्त्रियां अपने सुहाग की स्वस्थ, सुरक्षित, दीर्घायु एवं सुखी वैवाहिक जीवन की मनोकामना हेतु उपवास रखती हैं और विधिवत पूजन करके शिवजी का  जलाभिषेक करती हैं।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार जब देवों और दानवों के बीच समंदर मंथन हुआ था तो उसमें से निकले विष को शिवजी ने संपूर्ण सृष्टि की भलाई हेतु स्वयं ग्रहण कर लिया लेकिन अपने अंदर नहीं जाने दिया। विष को अपने कंठ में ही रोक लिया जिससे उनका शरीर नीला पड़ गया था और तब से ही उन्हें नीलकंठ महादेव के नाम से भी जाना जाने लगा। कहा जाता है कि वेदों के ज्ञाता महाज्ञानी लंका नरेश रावण महाशिवभक्त थे। जब उन्हें पता चला कि उनके आराध्य देव देवाधिदेव महादेव ने संपूर्ण सृष्टि की भलाई हेतु विषपान कर लिया है तो वे तुरंत ही कांवड़ में जल भर कर लाए और शिव भोलेनाथ का जलाभिषेक किया। तब से भी शिव जलाभिषेक के महात्म्य/महत्व की परंपरा मानी गई है।

समंदर मंथन की इस पौराणिक कथा का आज के समय में यह भी अर्थ/अभिप्राय है कि किसी भी कारणवश जब -जब हमारे समाज में किसी बुराई का आगमन हो तो उसे बुद्धिजीवियों/बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा तुरंत आगे बढ़ कर रोक दिया जाना चाहिए  ताकि समस्त समाज उसकी घिनौनी चपेट में न आ सके।

2) पुत्रदा एकादशी:

हिंदू धर्म में मान्यता है कि सावन/श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को उपवास रखने और गौरी शंकर की विधिवत पूजा अर्चना करने से योग्य, सभ्य, गुणी, संस्कारी एवं देश-दुनिया में नाम रौशन करने वाले पुत्र की प्राप्ति होती है ऐसा हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णन देखने को मिलता है।

3) श्रावण मास की एकादशी का महात्म्य/महत्व: 

इसके पीछे हमारे शास्त्रों में एक पौराणिक कथा का वर्णन देखने को मिलता है। कहा जाता है एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे मधुसूदन श्रावण मास की एकादशी का महात्म्य/महत्व क्या है, इसे पुत्रदा एकादशी क्यों कहते हैं? 

युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण ने कथा के रूप में पुत्रदा एकादशी का महात्म्य/महत्व समझाया जो इस प्रकार है: - द्वापर युग के प्रारंभ में महिष्मति नामक नगरी में महिजीत नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के पास धन-दौलत, इज्ज़त -सम्मान हर प्रकार का ऐशो-आराम था। वह अपनी प्रजा का अपनी संतान की तरह बहुत ख्याल रखता था।  उसकी प्रजा भी अपने राजा से बहुत खुश थी। राजा अपनी कोई संतान न होने की वजह से अंदर ही अंदर बहुत दुखी रहता था। राजा को लगता था कि उसकी मृत्यु के पश्चात् नगरी, प्रजा, उसके द्वारा अर्जित की गई बेशुमार संपत्ति-दौलत इत्यादि का उत्तराधिकारी कौन होगा। उसने संतान प्राप्ति के लिए अनेकों उपाय किए लेकिन सफलता नहीं मिली। वृद्धावस्था की आहट देखकर राजा को यह चिंता और सताने लगी। एक दिन राजा ने अपनी नगरी के मुख्य प्रतिनिधियों को राजमहल में आमंत्रित करके पूछा - मैंने कभी भी जाने अंजाने में किसी को दुःख नहीं दिया, कभी गल्त तरिके से धनार्जन नहीं किया, कभी भी ब्राह्मणों एवं देवों का तिरस्कार नहीं किया, प्रजा में अपराधियों को भी अपनी संतान की तरह ही दंडित किया, कभी भी किसी का हक नहीं छीना, समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठान करवाता रहता हूं फिर भी अभी तक पुत्र सुख से वंचित हूं इसका क्या कारण हो सकता है? अपने राजा को इतना दुखी देखकर राज्य के समस्त योग्य वरिष्ठ प्रतिनिधि समस्या के निवारण हेतु किसी संत-तपस्वी महात्मा की तलाश में निकल गए जिससे कि जल्द से जल्द उनके अत्यंत करुणामई राजा की समस्या का समाधान निकाला जा सके।

खोज करते-करते वे समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महाज्ञानी महात्मा लोमेश मुनि के आश्रम में जा पहुंचे। महात्मा को प्रणाम करके उन्होंने बहुत ही विनम्र भाव से अपने वहां जाने का कारण बताया और उनकी समस्या का जल्द से जल्द निवारण करने का सहज आग्रह किया। उन्होंने महात्मा लोमेश मुनि को बताया कि उनके अत्यंत करुणामई, दयालु राजा को दुखी देखकर वे सब भी बहुत दुःखी हैं अतः उनके दुःख के कारण का निवारण किया जाए। महात्मा ने उनकी पूरी बात सुनकर ध्यान लगाया और फिर उन लोगों को बताया कि :  राजा महिजीत पिछले जन्म में एक निर्धन वैश्य था । वह धन इकट्ठा करने केलिए मासूम लोगों को धोखा देता था और गल्त तरिके से व्यापार करके धनार्जन करने की कोशिश में लगा रहता था। एक बार वह व्यापार करने और धन कमाने की कोशिश में एक दूसरे गांव चला गया।  वहां उसे दो दिन तक खाने के लिए कुछ भी नहीं मिला। भूखा -प्यासा इधर-उधर घूम रहा था। अचानक उसे वहां एक जलाशय दिखाई दिया और वह पानी पीने के लिए वहां रुक गया। जलाशय पर पहले से ही एक गाय पानी पी रही थी। उस वैश्य ने जल्दी से गाय को वहां से हटा दिया और स्वयं पानी पीने लग गया। यद्यपि वैश्य एकादशी के दिन भूखा-प्यासा धन की तलाश में घूम रहा था। अनजाने में ही सही उस दिन उसका उपवास हो गया जिसके परिणामस्वरूप वह इस जन्म में राजा बन गया लेकिन प्यासी गाय के श्राप के कारण उसे इस जन्म में नि:संतान रहने का दुःख झेलना पड़ा। 

महात्मा द्वारा बताए गए राजा के पिछले जन्म का वृत्तांत सुनने के बाद सब लोगों ने उनसे पाप का प्रायश्चित कैसे हो उसके बारे में जानकारी देने की विनम्र प्रार्थना की। तब महर्षि ने उन्हें पुत्रदा एकादशी के व्रत/उपवास का महात्म्य/महत्व सुनाया और राजा की समस्या का समाधान बताया।
महर्षि लोमेश मुनि ने बताया कि अपने राजा की खुशी एवं उसकी समस्या के समाधान के लिए तुम सब प्रजा मिलकर सावन/श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी वाले दिन बड़े ही श्रद्धा भाव से उपवास रखो और अपने राजा की खुशी के लिए प्रार्थना, पूजा-अर्चना करो जिसके फलस्वरूप राजा के पिछले जन्म का पाप नष्ट हो जाएगा। 

सब लोगों ने महर्षि लोमेश मुनि के कहने के अनुसार सावन/श्रावण माह की एकादशी वाले दिन बड़े ही श्रद्धा भाव से उपवास रखा और पूजा- अर्चना की  जिसके फलस्वरूप कुछ समय पश्चात राजा के घर में एक बहुत ही सुंदर तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। कहा जाता है तब से ही सावन/श्रावण मास की एकादशी को पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाने लगा।

4) कांवड़ यात्रा:
कांवड़ यात्रा हिंदू धर्म की पवित्र परंपराओं में से एक है। देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने का सहज मार्ग माना गया है कांवड़ यात्रा। इस वर्ष यानिकि 2022 में 14 जुलाई को कांवड़ यात्रा की शुरुआत बड़ी ही धूमधाम से होने जा रही है। इस बार उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों का उत्साह देखते ही बनता है। सरकारों द्वारा कांवड़ियों की सुरक्षा एवं खाने पीने के पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं। पिछले दो सालों में कोविड -19 महामारी के चलते कांवड़ यात्रा का आयोजन नहीं हो पाया था। माना जा रहा है इस वर्ष भारी संख्या में  कांवड़िए/ श्रद्धालु कांवड़ यात्रा में भाग लेने जा रहे हैं। 

परंपरा के अनुसार उत्साह एवं श्रद्धा से भरपूर कांवड़िए सुदूर स्थानों से पैरों के छालों की परवाह किए बगैर पद यात्रा करके मां गंगा से कांवड़ में गंगाजल भरकर लाते हैं और श्रावण माह की चतुर्दशी के दिन विधिवत तरीके से शिव मंदिर जाकर शिव-जलाभिषेक करते हैं।

कांवड़ (kanwar) बांस की लकड़ी से बनाया जाता है जिसके दोनों ओर एक -एक टोकरी टिका कर रखी जाती है और इन टोकरियों में रखे गए बर्तनों में गंगाजल भरकर एक निश्चित समय में लाया जाता है और उसी पवित्र जल से शिव-जलाभिषेक/रुद्राभिषेक किया जाता है। जो श्रद्धालु कांवड़ में गंगाजल भरकर लाते हैं उन्हें कांवड़िए कहा जाता है। कांवड़ियों को कांवड़ यात्रा के दौरान विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है जैसे कांवड़ को जमीन पर नहीं रख सकते, कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ियों को सात्विक आहार का सेवन करना होता है, किसी भी प्रकार के मादक एवं नशीले पदार्थों के सेवन से दूरी बनाकर रखनी होती है इत्यादि। शिव भक्त दूर दराज के स्थानों से बड़ी ही श्रद्धा भाव से नंगे पांव पैदल चलकर कांवड़ में गंगाजल भरकर एक निश्चित समय में लेकर आते हैं और शिव- जलाभिषेक करते हैं हालांकि अब कुछ कांवड़ियों द्वारा कांवड़ के नियमों में ढ़ील दी जा रही है जैसे कुछ कांवड़िए यात्रा के दौरान पांव में जूते पहन कर चल सकते हैं, कांवड़ लाने और ले जाने के लिए और निश्चित समय पर पहुंचने के लिए गाड़ियों का प्रयोग किया जा रहा है। 

हिंदू धर्म में मान्यता है कि जब देवताओं और असुरों द्वारा समंदर मंथन हुआ था तो समंदर में से  14 रत्न निकले थे उन में से एक हलाहल विष था जिससे संपूर्ण सृष्टि नष्ट होने का डर था। सृष्टि की रक्षा हेतु देवाधिदेव महादेव शिव पूरा हलाहल विष पी गए लेकिन विष को अपने कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया जिसकी वजह से उनका शरीर नीला पड़ गया और असहनीय जलन होने लगी। माना जाता है कि लंका नरेश रावण बहुत बड़े शिव भक्त थे। जब उन्हें पता चला कि उनके आराध्य देव देवाधिदेव महादेव ने विषपान कर लिया है तो वे तुरंत ही कांवड़ में गंगाजल भरकर लाए और शिव भोलेनाथ का जलाभिषेक किया जिससे उनके संपूर्ण शरीर को जलन से राहत मिली। मान्यता है कांवड़ यात्रा और शिव जलाभिषेक का महात्म्य और प्रचलन तब से शुरू हो गया।

 लेखिका: पिंकी राय शर्मा



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