बड़ा देव कमरूनाग का महत्व | प्राकृतिक सौंदर्य से घिरी अरबों के खजाने से भरी कमरूनाग झील का पौराणिक रहस्य | Exploring the mystery of a beautiful mythical/historical treasure Lake Kamrunag in Himachal Pradesh
आज हम आपको प्राकृतिक सौंदर्य से घिरी अरबों के खजाने से भरी एक ऐसी रहस्यमयी पौराणिक झील से अवगत करवाने जा रहे हैं जिसकी स्थापना रामायण और महाभारत काल में हुई मानी जाती है। इस झील में छुपा है अरबों का खज़ाना। हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी, रूपए-पैसे और भी न जाने दुनिया में मौजूद एवं विलुप्त कितनी प्रकार की करंसी सम्माहित है इस अद्भुत, अविश्वसनीय, अलौकिक झील में।
ज्यादातर लोगों ने ऐसी झील के बारे में सिर्फ परियों वाली कहानियों में पढ़ा होगा या फिल्मों में देखा होगा लेकिन हम जिस अद्भुत खजाने से भरी झील के बारे में बताने जा रहे हैं ऐसी झील हकीकत में हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के एक छोटे से पहाड़ी कस्बे की सबसे ऊंची चोटी पर आज भी मौजूद है। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि इस अथाह खज़ाने की सुरक्षा हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा नहीं की जाती और न ही कोई स्थानीय सुरक्षा बल तैनात है बल्कि इसकी सुरक्षा स्वयं नाग देवता करते हैं। समुद्र तल से लगभग 9000 फ़ीट की ऊंचाई पर बनी यह खूबसूरत झील देखने वालों को मंत्र मुग्ध कर देती है। प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा मानो प्रकृति ने अपनी सारी खूबसूरती इसी जगह उड़ेल दी हो। इसी झील के किनारे बना है कमरूनाग जी का प्राचीन मंदिर जो "बड़ा देव" के नाम से स्थानीय लोगों में प्रख्यात हैं। बड़ा देव कमरुनाग हज़ारों करोड़ों लोगों की अपार श्रद्धा एवं आस्था का प्रतीक हैं। ऊंचे पहाड़ के शिखर पर अरबों के खज़ाने से भरी झील के किनारे पहाड़ी शैली में बना यह अद्भुत प्राचीन मंदिर खूबसूरत लंबे घने देवदार, कायल, चौड़ी पत्ती (बान) इत्यादि कई प्रकार के हरे-भरे पेड़ों से घिरा होने के कारण आने वाले श्रद्धालुओं का मन मोह लेता है।
वज़ोबिआना के इस आर्टिकल में प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर हिमालय की श्रृंखलाओं मेंं एक छोटे से पहाड़ी कस्बे की सबसे ऊंची चोटी पर बनी अरबों के खज़ाने से भरी कमरूनागजी की इस पवित्र, रहस्यमयी अद्भुत, एवं अलौकिक झील की पारंपरिक विशेषताओं के बारे में मुख्यत: निम्न पहलुओं पर फ़ोकस किया गया है:
1) कमरूनागजी कौन हैं, कहां स्थित हैंं, इनका महत्व क्या है, इन्हें बड़ा देव क्यों कहा जाता है?
2) कमरूनाग मंदिर व अरबों के खजाने से भरी झील की स्थापना की पौराणिक एवं प्रचलित कथाएं:
3) रहस्यमयी कमरूनाग झील का महत्व एवं प्राकृतिक सौंदर्य से घिरी अरबों के खज़ाने से भरी इस पौराणिक झील तक पहुंचने का रास्ता:
4) कलया क्या होती है, कैसे बनाई जाती है, देवता के लिए इसका प्रयोग कैसे किया जाता है? मंदिर परिसर में धार्मिक अनुष्ठान एवं यज्ञ कौन करवाता है? मन्दिर परिसर में बने हवन कुंड की विशेषता क्या है? मंदिर के पीछे पेड़ों के अंदर किवाड़ बंद करके रखी गई स्वर्ग से आई सुर्गणियों ( मूर्तियों ) का रहस्य क्या है?
Exploring the mystery of a beautiful mythical/historical treasure Lake Kamrunag situated at the top of a mountain surrounded by big and tall devdaar trees in Himachal Pradesh.
कमरूनागजी कौन हैं, कहां स्थित हैं, इन्हें बड़ा देव क्यों कहा जाता है, इसके पीछे स्थानीय लोगों की क्या धारणाएं हैं? आइए जानते हैं:
1) कमरूनागजी कौन हैं, कहां स्थित हैं, इनका महत्व क्या है, इन्हें बड़ा देव क्यों कहा जाता है?
कमरुनागजी से संबंधित अनेकों पौराणिक कहानियों का वर्णन देखने को मिलता है उनमें से ही एक कहानी का संबंध महाभारत काल के युद्ध से जुड़ा हुआ माना जाता है। इस पारंपरिक कहानी के अनुसार भीम के पौत्र और घटोतकच के पुत्र बर्बरीक ही असल में कमरूनाग हैं। कृष्ण जी बर्बरीक की शक्तियों के बारे में भली-भांति जानते थे उन्हें मालूम था कि बर्बरीक युद्ध में जिस भी सेना का साथ देंगे उस सेना की जीत निश्चित है। बर्बरीक ने जब युद्ध में जाने के लिए अपनी माता से आज्ञा मांगी तो माता ने युद्ध से पहले अपने बेटे से वचन लिया था कि युद्ध में जो सेना हार रही होगी तुम उसी की तरफ से युद्ध लड़ोगे।
कृष्ण जी ने बड़ी ही चतुराई से युद्ध शुरू होने से पहले ही बर्बरीक का सिर दान में मांग लिया। बर्बरीक ने कृष्ण जी से युद्ध देखने की इच्छा जताई। कहा जाता है कृष्ण जी ने तब बर्बरीक के कटे सिर को कमरूनाग की सबसे ऊंची चोटी पर एक लंबे बांस के डंडे से बांध दिया और वहीं से बर्बरीक कुरूक्षेत्र का युद्ध देखने लगे। बांस के डंडे पर बर्बरीक का सिर जिस सेना की ओर घूमता उसी का पलड़ा भारी होने लग जाता यानिकि वही सेना जीत की ओर बढ़ने लग जाती। कृष्ण जी ने बर्बरीक के सिर को उसी ऊंची चोटी पर एक पत्थर से बांध दिया और उसका सिर पांडव सेना की ओर घुमा दिया। युद्ध चलता रहा और निश्चित तौर पर पांडवों की अंत में जीत हुई। जिस पहाड़ की चोटी पर बर्बरीक का सिर बांधा था उस जगह का नाम है 'कमराह' शायद उसी से कमरूनाग जी का नाम पड़ा हो।
हिमाचल प्रदेश के जिला मंडी मुख्यालय से शिमला रोड़ पर वाया चैलचौक लगभग साठ किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा कस्बा है 'रोहांडा'। यहीं से लगभग नौ किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू होती है कमरूनाग जी की। रास्ता पहाड़ी और खड़ी चढ़ाई होने की वजह से बहुत ही संकरा एवं जोखिम भरा है। एक छोटी सी चूक मुश्किल पैदा कर सकती है फिर भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।
अब उन श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत खुशी की बात है जो कमरूनाग झील देखने जाना तो चाहते हैं लेकिन पैदल यात्रा करने में सक्षम नहीं हैं। हिमाचल सरकार ने श्रद्धालुओं की आस्थाा श्रद्धा, व संख्या को देखते हुए टूरिज्म को बढ़ावा देने हेतु मंडी से 30 किलोमीटर दूर चैलचौक कस्बे से शाला होते हुए कमरूनाग जाने के लिए लिंक रोड़ का निर्माण करवा दिया गया है और कमरूनाग झील के थोड़ी ही दूरी पर हैलीपैड/Helipad का भी निर्माण होने जा रहा है जो अत्यंत प्रशंसनीय है। इस रोड़ से श्रद्धालुओं को देव कमरूनाग एवंं खज़ाने से भरी अलौकिक झील के दर्शन करने के लिए सिर्फ आधा घंटा ही पैदल यात्रा करनी होगी क्योंकि वाया रोड़ सिर्फ 'खुंडा' तक ही वाहन ले जाने की अनुमति है। 'खुंडा' वह जगह है जहां से कमरूनाग जी की सीमा प्रारंभ होती है। आगे चलकर हम कमरूनागजी के मंदिर एवं अविश्वसनीय अलौकिक झील तक पहुंचने के अन्य मार्ग की भी विस्तार से चर्चा करेंगे और इस रास्ते पर मिलने वाले रामायण और महाभारत काल के पौराणिक चिन्ह जो आज भी मौजूद हैं की व्याख्या करेंगे।
कमरूनागजी श्रद्धालुओं के लिए गहरी व सच्ची आस्था का प्रतीक हैं। इन्हें बड़ा देव के नाम से भी जाना जाता है। इनके दरबार में सच्चे मन से मांगी गई हर मनोकामना पूरी होती है। मंडी नगर में जब अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि के मशहूर मेले का आयोजन किया जाता है तो कमरुनाग जी का इसमें एक महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी मौजूदगी के बिना अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव की शुरुआत नहीं होती। इनकी प्रतिमा को एक छड़ी के रूप में पूरी सुरक्षा के साथ मंडी लाया जाता है। शिवरात्रि महोत्सव में शामिल होने के लिए इन्हें पहले परंपरा के अनुसार मुख्य जिला प्रशासन द्वारा आमंत्रित किया जाता है । आमंत्रण स्वीकार करने के बाद ही बड़ा देव कमरुनाग अपने निजी स्थान से कड़ी सुरक्षा के साथ अंतर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के लिए रवाना होते हैं। इस दौरान इन्न्हें किसी वाहन विशेष में नहीं बल्कि कई किलोमीटर पैदल यात्रा करके शिवरात्रि महोत्सव के लिए मंडी शहर लाया जाता है। पैदल यात्रा के दौरान रास्ते में जगह-जगह श्रद्धालुओं द्वारा इनका जोरदार स्वागत किया जाता है। मंडी पुलघाट पर पहुंचते ही जिला प्रशासन के प्रमुख जिला अधिकारी (जिलाधीश) उच्च अधिकारियों के साथ बड़ा देव कमरुनाग जी के भव्य स्वागत के लिए ढोल नगाड़ों के साथ पहले से ही मौजूद रहते हैं। जबरदस्त स्वागत के बाद इन्हें राजमहल माधवरायजी से मिलवाने जो कि श्रीकृष्ण जी का प्राचीन मंदिर है ले जाया जाता है। कुछ देर विश्राम करने के बाद फिर इन्हें टारना माता के मंदिर जो कि मंडी शहर से ऊंचाई पर स्थित है ले जाया जाता है। टारना माता के मंदिर में बड़ा देव कमरूनाग जी पूरे 7 दिनों तक विश्राम करते हैं।
कहा जाता है जब कमरूनाग जी को राजाओं महाराजाओं के समय में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव पर मंडी नगर लाया गया था तब मंडी के राजा ने इन्हें राजमहल मेंं ही ठहराया था। उस दिन आधी रात के समय जो पारंपरिक नगाड़ा कमरूनाग जी के पास रखा था अपने आप ही जोर-जोर से बजने लगा राजमहल में इतना शोर हुआ कि राजा सहित वहां रहने वाले सभी कर्मचारी, प्रहरी उठ खड़े हुए। उसी समय इन्हें टारना माता के मंदिर ले जाया गया वहां पहुंचने पर नगाड़ा स्वयं बजना बंद हो गया। तब से मान्यता है कि कमरूनाग जी को एकांत पसंद है और इन्हें अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव के दौरान पूरे सात दिनों तक टारना माता के मंदिर में ही रखा जाता है।
स्थानीय लोगों में बड़ा देव कमरुनागजी का बहुत महत्व है इनके दरबार में श्रद्धालुओं द्वारा मांगी गई हर मनोकामना पूरी होती है साथ ही इन्हें बारिश का देवता भी कहा जाता है। मान्यता है पूरे इलाके में जब-जब सूखा पड़ता है तो कमेटी द्वारा निर्वाचित 'गूर' कमरूनागजी की विशेष प्रकार से पूजा अर्चना करते हैं तो एक निर्धारित समय में बारिश हो जाती है। और जब-जब अत्यधिक बारिश होती है तो निर्वाचित 'गूर' द्वारा पूजा अर्चना करने से बारिश रूक जाती है। 'गूर' वह व्यक्ति विशेष है जिसका चुनाव कमरूनाग कमेटी द्वारा मुख्यत: लाठी खानदान में से किया जाता है। सदियों से यही परंपरा चली आ रही है। यदि निर्धारित समय में निर्वाचित 'गूर' बारिश लाने में असफल रहता है तो लाठी समुदाय में से ही किसी दूसरे व्यक्ति को 'गूर' बनाकर गद्दी पर बिठा दिया जाता है और उसका पद तब तक बना रहता है जब तक वह पूजा अर्चना से निर्धारित समय पर बारिश करवाने या बारिश बंद करने में सक्षम होता है। जन समुदाय के आग्रह पर बारिश लाने या बारिश बंद करने की समय अवधि है ढ़ाई घड़ी यानिकि (एक घंटा ) ढ़ाई दिन या अधिकतम चार दिन। वर्तमान समय में ठाकुर दास जी कमरूनाग जी के दरबार में "गूर" की गद्दी पर विराजमान हैं।
एक दंत कथा के अनुसार जब कमरूनाग जी की स्थापना इस एकांत और बेहद खूबसूरत स्थान पर की गई तो इंद्र देव रुष्ठ हो गए और उन्होंने इस स्थान पर बारिश करना बंद कर दिया, स्थानीय लोगों में हाहाकार मच गया। तब कमरूनाग जी इंद्र देवता के पास गए और बारिश करने की गुजारिश की लेकिन जब इंद्र देव नहीं माने तो कमरूनाग जी वहां से बादलों को ही चुरा लाए और अपने इलाके में झमाझम बारिश करवा दी। तब से इन्हें बारिश का देवता भी माना जाता है।
कमरूनागजी को बड़ा देव क्यों कहा जाता है, किसने इन्हें बड़े देव की उपाधि से सर्वप्रथम विभूषित किया था? कमरूनागजी का स्थान श्रद्धालुओं में सर्वोपरि है इसलिए इन्हें बड़ा देव के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें बड़ा देव की उपाधि किसने दी इसके पीछे भी एक पारंपरिक कहानी है:
कहा जाता है कि मंडी के राजा और कमरूनाग जी का आपस में घनिष्ठ संबंध था। समय-समय पर राजा ने अपने लिए और अपनी प्रजा के हित के लिए कमरूनागजी की भिन्न-भिन्न प्रकार से परीक्षा ली। उदाहरण स्वरुप राज्य में बारिश के लिए, किसी महामारी को बढ़ने से रोकने के लिए या अपनी ताजपोशी के लिए अनेकों बार राजा द्वारा कमरूनाग जी की परीक्षा ली गई और हर बार राजा की कीर्ति बढ़ती ही गई और हर मनोकामना पूर्ण होती गई।
मान्यता है कि जब दिल्ली में उतर-भारत के सर्वश्रेष्ठ राजा का चयन होना था तो कमरूनागजी ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि दिल्ली में जब सर्वश्रेष्ठ राजा के चयन का सम्मेलन चल रहा होगा तो जिस कुर्सी पर आपको मैं नाग रूप में बैठा दिखाई दूंगा आप उसी कुर्सी पर जाकर बैठ जाना। राजा जब सर्वश्रेष्ठ राजा के खिताब के लिए राजाओं के सम्मेलन में दिल्ली पहुंचे तो उन्हें सचमुच एक कुर्सी पर नाग देवता बैठे दिखाई दिए। मंडी के राजा उसी कुर्सी पर जाकर बैठ गए और बड़ी ही शान से सर्वश्रेष्ठ राजा का खिताब जीत गए। कहा जाता है राजा ने तब कमरूनागजी को "बड़ा देव" की उपाधि से विभूषित किया और तब से ही कमरूनागजी श्रद्धालुओं में बड़ा देव के नाम से प्रख्यात हो गए।
2) कमरूनाग मंदिर व अरबों के खज़ाने से भरी झील की स्थापना की पौराणिक एवं प्रचलित कथाएं:
यहां हम कमरूनागजी के मंदिर की स्थापना व अरबों के खज़ाने से भरी झील की स्थापना की पौराणिक एवं प्रचलित कथाओं का वर्णन करेंगे।
एक पौराणिक प्रचलित कथा के अनुसार कुरूक्षेत्र में कौरवों और पांडवों के बीच जब युद्ध चल रहा था तो श्री कृष्ण जी ने रत्न यक्ष को अपने रथ की ध्वजा से बांध दिया था। युद्ध में जब पांडवों की जीत हुई तो वे रत्न यक्ष को एक पिटारे में लेकर हिमालय की श्रृंखलाओं की ओर चल दिए। रास्ते में जब नलसर पहुंचे तो उन्हें पिटारे में से आवाज़ आई कि मुझे यहां से किसी एकांत स्थान की ओर ले चलो। पहाड़ी इलाका शांत वातावरण से भरपूर कमराह घाटी नलसर से नज़दीक और छोटे से कस्बे रोहांडा के पास पड़ती है तो पांडव पिटारे को लेकर यहीं आ गए।जब घाटी की चोटी पर पहुंचे तो रत्न यक्ष ने वहीं रूकने का आग्रह किया। पांडवों ने जब पिटारे को खोला तो रत्न यक्ष वहां एक भेड़ चरवाहे को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने बताया कि त्रेता युग में उसका जन्म उसी जगह हुआ था। उसकी माता नागों की पूजा किया करती थी। उसकी माता ने एकसाथ नौ नागों को जन्म दिया था। उसने भी उस नारी के गर्भ से नाग के रूप में जन्म लिया था। उसकी माता सब नागों को एक पिटारे में बंद करके रखती थी। एक दिन उसके घर आई महिला मेहमान के हाथ से नागों का पिटारा छूट कर आग में गिर गया। सारे नाग बच्चे आग में गिर गए लेकिन रत्न यक्ष किसी तरह जान बचाकर वहीं कहीं छिप गए। बाद में माता ने उन्हें ढूंढ निकाला और उनका नाम कमरूनाग रख दिया।
एक और पौराणिक कथा के अनुसार श्री कृष्ण ने कमरूनागजी को वरदान दिया था कि लोग युगों-युगों तक तुम्हें याद रखेंगे और देवता मानकर विधिवत तुम्हारी पूजा अर्चना करेंगे। कहते हैं जब महाभारत का युद्ध खत्म हुआ और पांडवों की जीत हुई तो श्रीकृष्ण स्वयं पांडवों को लेकर कमरूनाग घाटी आए और कमरूनागजी को पांडवों का देवता मान कर उनकी पूजा अर्चना की। मान्यता के अनुसार वर्तमान समय में कमरूनाग जी की जो प्रतिमा मंदिर में विद्यमान है उसकी स्थापना पांडवों द्वारा ही की गई थी। मूर्ति स्थापना के बाद कमरूनागजी जी ने पानी पीने की इच्छा जताई तो उसी समय भीम ने अपनी हथेली मंदिर के प्रांगण में मार कर झील का निर्माण कर दिया।
3) रहस्यमयी कमरूनाग झील का महत्व एवं प्राकृतिक सौंदर्य से घिरी अरबों के खज़ाने से भरी इस पौराणिक झील तक पहुंचने का रास्ता:
देव धरती हिमाचल वास्तविक रूप से न जाने कितने ही दृश्य एवं अदृश्य रहस्यमयी तथ्यों से भरपूर है। वज़ोबिआना के इस लेख में आज हम एक ऐसी ही अविश्वसनीय, प्राकृतिक सौंदर्य से घिरी अरबों के खज़ाने से भरी अलौकिक झील का वर्णन करने जा रहे हैं। यह पौराणिक रहस्यमी झील श्रद्धालुओं के लिए इसलिए महत्व रखती है क्योंकि यह रामायण और महाभारत काल से लेकर वर्तमान तक लोगों की अटूट आस्था एवं श्रद्धा का केंद्र बिंदु रही है। मान्यता है यहां आने वाले हर व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण होती है और वह अपनी श्रद्धा अनुसार सोना, चांदी, रुपए-पैसे इत्यादि का चढ़ावा खुशी से इस अद्भुत झील में अर्पित कर देता है। जैसे-जैसे जनपद को इस अनोखी खज़ाने से भरी झील के बारे में ज्ञात हो रहा है वैसे-वैसे आज भी देश-दुनिया से न जाने कितने ही पर्यटकों/श्रद्धालुओं को आकर्षित कर रही है यह मंत्र मुग्ध कर देने वाली खूबसूरत झील।
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के एक छोटे से पहाड़ी कस्बे रोहांडा से लगभग नौ किलोमीटर पैदल यात्रा तय करने पर गगनचुंबी देवदार के पेड़ों और सांप जैसे दिखने वाले अद्भुत लेकिन खूबसूरत पौधों व फूलों से घिरी, अरबों के खज़ाने से भरी यह अलौकिक झील ऊंचे पहाड़ की चोटी पर बड़ा देव कमरूनागजी के प्रांगण में आज भी विद्यमान है।
हिंदु पंचांग के अनुसार आषाढ़/जून के महीने में जब सूर्य देव अपना राशि परिवर्तन कर मिथुन राशि में प्रवेश करते हैं तब कमरूनागजी के मंदिर में हर साल आषाढ़ सक्रांति पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। स्थानीय भाषा में इसे "सरनौहली" के नाम से जाना जाता है। देश-विदेश से हर साल लाखों की संख्या में भक्तगण कमरूनागजी जी एवं इस अलौकिक खज़ाने से भरी झील के दर्शनों के लिए आते हैं और मन्नत पूरी होने पर इच्छानुसार करोड़ों का चढ़ावा जिसमें सोना-चांदी, कोई भी करंसी, नोट इस झील में चढ़ाते हैं। मान्यता है इस झील में रहस्यमयी शक्ति का निवास है। कभी-कभी सरनौहली के मेले के दौरान झील के ठहरे हुए पानी में से गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई देती है और पानी उच्छल कर कमरूनागजी की प्रतिमा को छू कर वापस झील में लौट जाता है। यह सपना नहीं बल्कि आंखों देखी हकीकत है। कमरूनागजी दिल से मांगी हर मनोकामना पूरी करते हैं। मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालुओं द्वारा सोना-चांदी, रूपए-पैसे, हीरे-जवाहरात, देसी-विदेशी न जाने कितनी तरह की करंसी का चढ़ावा सब इस अलौकिक झील में चढ़ा दिया जाता हैं। यह श्रद्धालुओं की अटूट आस्था एवं श्रद्धा का ही परिणाम है कि यहां आकर हज़ारों औरतें अपने पहने हुए गहने भी खुशी-खुशी उतारकर इस अद्भुत झील को समर्पित कर देती हैं।
स्थानीय लोगों के अनुसार कहा जाता है एक बार एक औरत ने मन ही मन बच्चा होने की मन्नत मांगते हुए अपने जेवर झील में अर्पित कर दिए। जब वह वापस अपने घर जा रही थी तो रास्ते में एक जगह पानी पीने के लिए रूक गई। पानी पीते हुए उसके मन में शंका घर कर गई कि उसने अपने कीमती जेवर झील में चढ़ावे के रूप में चढ़ा तो दिये लेकिन अगर उसके द्वारा मांगी गई बच्चा होने की मन्नत पूरी नहीं हुई तो? कहते हैं उसी समय उसके द्वारा झील में चढाए गए ज़ेवर उसके हाथ में आ गए।
चढ़ावे की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। युद्ध जीतने के बाद पांडवों ने कमरूनागजी का मंदिर बनाया और उनकी प्रतिमा की स्थापना की। कहा जाता है तब कमरूनागजी ने पानी पीने की इच्छा जाहिर की तो भीम नेे इस जगह ज़मीन पर अपनी हथेली मार कर इस अद्भुत झील का निर्माण किया था। उस समय पांडवों के पास जितना भी सोना-चांदी अथवा आभूषण थे सब इसी झील में डाल कर चले गए।
झील के चारों ओर सांप के आकार के अद्भुत पौधे विद्यमान हैं मान्यता है कि यही पौधे रात को असली सांप बनकर झील में छुपे अथाह खज़ाने की रक्षा करते हैं। अरबों का खज़ाना झील में होने के बावजूद हिमाचल सरकार द्वारा यहां सुरक्षा के कोई प्रबंध नहीं हैं और न ही कोई चोर गिरोह खज़ाने को चुरा पाया। कहा जाता है कई बार चोरों ने खज़ाने को चुराने की कोशिश की थी लेकिन कामयाब नही हुए। कुछ को अपनी जान गंवा कर कीमत चुकानी पड़ी थी और कुछ ने अपनी आंखें हमेशा के लिए खो दीं। ऊंची पहाड़ी और बेहद ठंडा इलाका होने की वजह से झील के आसपास कोई नहीं रहता। स्थानीय लोगों के अनुसार खज़ाने की चोरी करना तो दूर चोरी के बारे में सोचना भी महापाप है क्योंकि इस खज़ाने की सुरक्षा स्वयं उनके आराध्य देव कमरूनागजी सदियों से करते आ रहे हैं और यह अनमोल खज़ाना हर साल बढ़ता जा रहा है।
इस अकल्पनीय खूबसूरत झील की एक अद्भुत सच्चाई यह भी है कि भले ही कितनी ज्यादा बारिश हो जाए लेकिन झील का पानी कभी भी ओवरफ्लो/overflow नहीं करता और कितना भी सूखा पड़ जाए कभी भी झील का पानी कम नहीं होता। इस झील की गहराई कितनी है कोई नहीं जानता। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एवं संरक्षण विभाग/archeological survey of India के अधिकारियों द्वारा झील की गहराई नापने की कोशिश की गई थी लेकिन अभी तक कोई कामयाबी हासिल नहीं हुई है।
क्या हुआ जब एक अंग्रेज अधिकारी ने खज़ाना निकालने के बारे में सोचा: अंग्रेजी शासन काल में जब एक अंग्रेज अधिकारी को इस खज़ाने से भरी झील के बारे में पता चला तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने मंडी के राजा से मिलकर योजना बनाई कि क्यों न इस अथाह खज़ाने को निकालकर लोगों की भलाई में लगाया जाए। पहले तो राजा उसकी बात टालते रहे लेकिन बार-बार आग्रह करने पर उस अंग्रेज अधिकारी की पेशकश को मान लिया गया। यद्यपि यह बात आम जनता को पसंद नहीं आई थी लेकिन अंग्रेजी हुकूमत होने की वजह से कोई विरोध भी नहीं कर पाया। अंग्रेज अधिकारी कुछ लोगों के साथ खज़ाना निकालने के लिए झील की ओर निकल पड़ा। जब वह झील के पास पहुंचने ही वाला था तो अचानक ज़ोर की बारिश शुरू हो गई जिस वजह से उसे पीछे ही रूकना पड़ा। भूख लगने पर उस अधिकारी ने वहां पर ही एक स्थानीय फल खा लिया। फल खाते ही वह गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गया। उसकी हालत ऐसी हो गई कि एक कदम भी उस के लिए आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया। अब तक वह कमरूनागजी की रहस्यमयी शक्ति को अनुभव कर चुका था। उसने खज़ाना निकालने का फैसला त्याग दिया और अपने लोगों के साथ वापस लौट गया।
अरबों के खज़ाने से भरी इस पौराणिक झील तक पहुंचने का रास्ता:
वैसे तो हिमाचल प्रदेश सरकार ने वर्तमान समय में इस अरबों के खज़ाने से भरी झील तक पहुंचने के दो-तीन रास्ते बना दिए हैं लेकिन हम जिस प्राचीन रहस्यमयी रास्ते के बारे में बताने जा रहे हैं कहा जाता है पांडव कुरूक्षेत्र का युद्ध जीतने के बाद इसी रास्ते से होते हुए कमरूनाग पहुंचे थे। महाभारत काल के कुछ पौराणिक चिन्ह आज भी इस रास्ते में मौजूद हैं। हम आपको इन्हीं चिन्हों से अवगत करवाते हुए कमरूनागजी की इस रहस्यमयी बेहद खूबसूरत अरबों के खज़ाने से भरी झील तक ले कर जाएंगे। यह रास्ता मंडी जिला मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर रोहांडा नामक कस्बे से शुरू होता है। झील पहाड़ी की चोटी पर स्थित होने की वजह से पूरा रास्ता जोखिम भरा, संकरा लेकिन कई रोमांचक पौराणिक तथ्यों से भरा है।
रोहांडा से कुछ दूर तक चढ़ाई चढ़ने पर एक पत्थर पर लाल रंग से एक पैर का निशान बना है यह जगह नारायण पांव के नाम से प्रसिद्ध है और लोग इसकी पूजा करते हैं। कुछ लोग इसे भीम का पैर भी मानते हैं। एक दंत कथा के अनुसार जब पांडव अज्ञात वास के दौरान इस रास्ते से होकर कमरूनाग की ओर जा रहे थे तो कैमरी नामक दैत्य और उसकी पत्नी ने पांडवों का रास्ता रोकने की कोशिश की थी तभी भीम ने अपना एक पैर उस चट्टान पर टिका कर दैत्य और उसकी पत्नी पर जोर का प्रहार कर दोनों का वध कर दिया था। लाल रंग के पैर के निशान के बाद थोड़ी देर तक और चढ़ाई चढ़ने पर एक बहुत बड़ी चट्टान इंसान की कटी जीभ के आकार की देखने को मिलती है, चट्टान पर काटने का निशान साफ दिखाई देता है। मान्यता है जब भीम ने दैत्य और उसकी पत्नी पर प्रहार किया था तो दैत्य पत्नी की जीभ कट कर मुंह से बाहर निकल आई थी और सदियों से चट्टान बन कर वहीं पड़ी है।
पौराणिक रहस्यमयी झील तक पहुंचने का रास्ता विभिन्न प्रकार के हरे-भरे मन को मोह लेने वाले पेड़-पौधों एवं गगनचुंबी देवदार के पेड़ों के बीच में से होकर गुजरता है। औषधीय पौधों की जानकारी रखने वालों के अनुसार घने जंगल के बीचों-बीच बहुत सारे पौधे औषधीय गुणों से भरपूर हैं जिनमें से एक पौधा 'रखाले' नाम से जाना जाता है यह पौधा मैडिसनल वैल्यू से भरपूर हैै। कुछ स्थानीय लोगों द्वारा इस की खेती भी की जाती है और अच्छे दामों पर बेचा जाता है। रहस्यमयी झील तक पहुंचने का रास्ता अनेकों तथ्यों से भरा होने की वजह से रहस्यों को जान लेने की जिज्ञासा को और बढ़ावा देता है।
मंदिर परिसर में किसी भी चमड़े से बने सामान का लेकर जाना निषेध है। कमरूनागजी का कोई भी वाद्य यंत्र या उनसे संबंधित कोई भी चीज चमड़े से बनी हुई नहीं होती। जैसे ही श्रद्धालु बड़ा देव के मंदिर की सीमा में प्रवेश करते हैं सबसे पहले उन्हें भुजंड देव जिन्हें कमरूनाग जी का अनुयायी माना जाता है के दर्शन होते हैं। मान्यता है यहां आने वाले भक्तगण रास्ते से एक छोटी सी लकड़ी का टुकड़ा अपने साथ ले कर आते हैं और उसे देवता के अनुयायी भुजंड देव पर चढ़ा देते हैं।
4) कलया क्या होती है, कैसे बनाई जाती है, देवता के लिए इसका प्रयोग कैसे किया जाता है? मंदिर परिसर में धार्मिक अनुष्ठान एवं यज्ञ कौन करवाता है? मंदिर परिसर में बने हवन कुंड की विशेषता क्या है? मंदिर के पीछे पेड़ों के अंदर किवाड़ बंद करके रखी गईं स्वर्ग से आई सुर्गणियों (मूर्तियों) का रहस्य क्या है?
मंदिर परिसर में बनी कमरूनागजी की प्राचीन प्रतिमा पर हर महीने संक्रांति के शुभ अवसर पर विधि अनुसार 'कलया' का प्रयोग किया जाता है। कलया चावल और गाय के शुद्ध देसी घी के मिश्रण से तैयार की जाती है। सबसे पहले सवा दो सेर चावल लेकर स्वच्छ पानी में धोकर भिगो दिया जाता है फिर इसे शुद्ध देसी घी में पेस्ट बनने तक गूंधा जाता है। इसके बाद इस पेस्ट को देवता की संपूर्ण मूर्ति पर लगा दिया जाता है। यह प्रक्रिया मंदिर परिसर में निर्वाचित 'गूर' द्वारा प्रति माह सक्रांति वाले दिन की जाती है।
मंदिर परिसर में समय-समय पर हिंदु धर्म के अनुसार अलग-अलग धार्मिक अवसरों पर जैसे गुप्त नवरात्रि या मुख्य नवरात्रि इत्यादि दिवस पर यज्ञ/अनुष्ठान का भव्य आयोजन किया जाता है। सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार यह प्रक्रिया निरंतर एक ही खानदान के पुजारियों/पुरोहितों द्वारा बड़ी ही श्रद्धा एवं भक्ति भावना से संपूर्ण की जाती है। वर्तमान काल में कमरूनाग जी के मंदिर में हवन-पूजन, यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठानों की प्रक्रिया इलाके के प्रख्यात विद्वान पंडित/पुजारी श्री लुदरमणी शर्मा जी, श्री अमरनाथ शर्मा जी, एवं श्री यशपाल शर्मा जी द्वारा बड़ी ही श्रद्धा भाव एवं पारंपरिक तरीके से निभाई जा रही है। धार्मिक अनुष्ठानों के शुभ अवसर पर बड़ा देव कमरुनाग जी को देसी घी व आटे से बने प्रसाद का भोग लगाया जाता है और प्राचीन प्रतिमा पर पंचमेवे का लेप लगाया जाता है, बाद में इसी पंचमेवे को निकालकर श्रद्धालुओं में प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।
कमरूनागजी के मंदिर परिसर में बने हवन कुंड का विशेष महत्व हैै। हवन करने के लिए कुंड को 7 साल, 9 साल या 12 साल में खोला जाता है। यह हवन कुंड 6 फुट गहरा, 6 फुट लंबा व 3 फुट चौड़ा है। परंपरा के अनुसार कुंड को हवन सामग्री से पूरा भर कर ही हवन शुरू किया जाता है। मंदिर के पुजारी पंडित यशपाल शर्मा जी ने बताया कि सवा चार क्विंटल तिल (चार सौ पच्चीस किलो) और बाकी अन्य हवन सामग्री से हवन कुंड को भरने के बाद ही हवन किया जाता है।
मंदिर के पीछे पेड़ों के अंदर किवाड़ बंद करके रखी गई स्वर्ग से आई सुर्गणियों (मूर्तियों) के बारे में भी स्थानीय लोगों की एक अलग अविश्वसनीय एवं रहस्यमयी विचारधारा हैै, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। कहा जाता है महाभारत काल में अज्ञात वास के दौरान जब पांडव हिमाचल के इन्हीं जंगलों में निवास कर रहे थे तो यहीं पर युधिष्ठिर का सामना रत्न यक्ष से हुआ था और उसके द्वारा पूछे गए सवालों के सही एवं तर्कपूर्ण जवाब युधिष्ठिर ने दिए थे। कमरूनागजी के मंदिर के पीछे पेड़ों में छेद करके 7 मूर्तियां स्थापित की गईं हैं और उनके किवाड़ बंद कर दिए गए हैं। मान्यता है कि ये सातों परियां स्थानीय भाषा में जिन्हें सुर्गणियां कहते हैं महाभारत काल में रत्न यक्ष के साथ स्वर्ग से आईं थीं और वापस नहीं गईं। यहां इनको पेड़ों के अंदर मूर्तियों के रूप में स्थापित कर दिया गया है। मंदिर परिसर में जब भी धार्मिक अनुष्ठान होते हैं तो इनके किवाड़ खोलकर इन्हें भी भोग लगाया जाता है और फिर किवाड़ बंद कर दिए जाते हैं। मान्यता है कि भोग लगाने के बाद इनके किवाड़ बंद करना अत्यंत आवश्यक होता है क्योंकि यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। कहा जाता है अगर इन्हें खुला छोड़ा गया तो इनकी दृष्टि मात्र से ही सार्वजनिक जगहों पर उथल-पुथल मच सकती है जिससे आम जनता का अहित हो सकता है। यह आश्चर्यजनक तथ्य हमें स्थानीय लोगों द्वारा ही बताया गया है।
स्थानीय लोगों मंदिर परिसर के पुजारियों एवं गूर के अनुसार इस खूबसूरत झील की सफ़ाई शायद पर्याप्त संसाधनों की कमी की वजह से वे हर साल नहीं करवा पाते इसलिए हर तीसरे साल झील की सफ़ाई करवाई जाती है। खुला वातावरण और पेड़ों से घिरी होने की वजह से बहुत सारे सूखे पत्ते, घास, टूटी हुई लकड़ियां, कूड़ा -कर्कट इत्यादि हवा से झील में गिरते रहते हैं और स्वच्छ एवं निर्मल जल को पूरी तरह ढ़क कर दूषित करते हैं। यदि हमारा यह आर्टिकल हिमाचल सरकार से संबंधित कोई भी अधिकारी पढ़ रहा हो तो कृपया हमारी यह विनम्र प्रार्थना सरकार तक जरूर पहुंचाएं कि "देश की इस अनमोल/priceless खज़ाने से भरी धरोहर की सफ़ाई साल में एक बार अवश्य करवाएं " ताकि प्रतिवर्ष यहां आने वाले लाखों श्रद्धालु इसकी अकल्पनीय खूबसूरती का आनंद ले सकें। न जाने कितने ही आश्चर्यचकित कर देने वाले अद्भुत तथ्यों से भरी है हमारे देश की देव भूमि कही जाने वाली हिमाचल की पावन-पवित्र धरती। यहां के भोले-भाले लोगों की देवी-देवताओं के प्रति अटूट एवं पवित्र निश्च्छल आस्था स्वाभाविक रूप से देश-दुनिया के श्रद्धालुओं को मंत्र मुग्ध कर देती है और निश्चित तौर पर हिमाचल भ्रमण करने के लिए भरपूर उत्साह के साथ प्रेरित करती है।

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